काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
दूर करती गहन अन्धकार,
कराती अपनी लौ का प्रसार;
टीम टीम कर जलती रहती .
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
जला-जला अपनेको जिसने
दिया सुख दूसरों को जिसने
फिर भी हस बिखेरती रहती.
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
अपने लिए उसने उसने क्या संजोया?
ताल में अँधेरा फिर भी न रोया
दे सबको लौ सुख पाती.
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
पर मानव मन बड़ा है खोटा
मेरा ह्रदय बड़ा है छोटा,
स्वार्थ का विसत ही करती.
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
समेटना ही हमको आया
कुछ न दिया पर सबसे पाया,
फिर भी गर्व मैं कितना करती.
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
मन में कौंधा एक विचार
लेना ही क्या जग का सार
वह दे कर प्रसन्न मैं तो पा कर छोटी.
काश..! मैं एक दीपक होती
देती सबको अपनी ज्योति.
(दिनांक २८ फरवरी, सन २००१ को....)
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